पिछले एपिसोड में हम बात कर रहें थे _दो संन्यासियों के बारे में। संध्या का समय वें जब ध्यान मग्न होने लगे तभी बङे संन्यासी बोल उठें _”तुमने यह क्या किया? तब छोटे संन्यासी आश्चर्य से पुछे_”आप किस घटना के बारे मे बोल रहे हैं महात्मा जी ?”
– – – – – बङे संन्यासी गुस्से में आकर बोलें- ” वह जो तुम,एक युवती नारी को खुले बदन, कौपिन पहना अवस्था में ही गोद में उठाकर नदी पार कराया? ”
नवीन संन्यासी घटना क्रम को स्मरण कर बोलें, ” ओ–हो: अच्छा-अच्छा! परन्तु वह तो सुबह की बात है -अभी तो शाम हो चुका है! इसके अलावा मैं तो उस युवती को नदी पार कराने के उपरांत ही गोद से उतार दिया था।आप क्यूँ अभी तक मन में ढोयें जा रहें हैं?
कहानी सुनकर वहाँ मौजूद सभी ने हँसने लगा। गुरु महाराज खुद भी हँस रहें थे।उनके मुखङे की सुन्दर हँसी _अद्भुत, अनमोल-अतुलनीय था। ( छोटे संन्यासी द्वारा कृत कार्य की बात, बङे संन्यासी द्वारा अपने मन में ढोयें जाना। संध्या तक उसे दवायें न रखकर उजागर कर देना——)
अब वें ( गुरु महाराज) कहने लगें- “इस प्रकार हीं हम जन्म-जन्मान्तर का संस्कार मन मे ढोये जा रहें हैं। मन को मुक्त होने नहीं दे रहा है – आजाद पंछियों के तरह मन अननंत आसमान में बिचरण नहीं कर पा रहा है! स्थूल शरीर का केंद्रीक – जागतीक,लेन-देन में ही सीमाबद्ध होकर रह जा रहा है।
तो फिर मन को संकल्प-विकल्प रहित अवस्था किस प्रकार प्राप्त होगा! प्राप्त क्या नहीं होगा ? परन्तु देखो यह अवस्था को प्राप्त करना हीं मानव जीवन का लक्ष्य है,वही अंतिम या चरम दशा है। परन्तु यह लक्ष्य पर न पहुँचकर दिशा हीन होकर इंसान भटक रहा है । सटीक लक्ष्य कि ओर चलना सम्भव नहीं हो पा रहा है! जङ(भौतिक) विज्ञान कि नज़रिये से देखा जाये_तो पृथ्वी का सब कुछ अविराम निम्नाभीमुखी है। पृथ्वी का केंद्र कि ओर! उपर उठने ना देना पृथ्वी का गुरुत्वाकर्षण का धर्म है। यहाँ उपर उठने के लिए हल्का होना हीं होगा – जितना भारी होगा उतना ही निम्नगामीता बढ़े गा! अर्थात मन का विषय-आशय का वस्तु , चिंता का विषय वस्तु जितना स्थूल होगा, जितना भारी होगा उतने ही निम्नगामी होगा। स्थूल शरीर धारन कर मनुष्य का मन में स्थूल चिंता या पार्थिव विषय समुह का चिंता ना हो यह सम्भव नहीं है_परन्तु उसे मन में रख कर नहीं चलना है! बिन कारण मन में बोझ डालने से क्या फायदा होगा। वह नवीन संन्यासी के तरह हीं कहना होगा _” उसे तो मैंने सुवह कब का नदी पार उतार आया हूँ , आप क्यूँ अभी तक मन में ढोयें जा हरें हैं? ”
ठाकुर श्री रामकृष्ण देव भी कहें थें-” मनुष्य मन से ही बंधा है,और मन से ही मुक्त है!” कोई विषय, कोई दुश्चिनंता जो मन को ठेस पहुँचा रहा है, मन को पीङा दे रहा है _ उसे मन से बाहर निकाल फेंकने से ही और कोई कष्ट नहीं रहेगा ! मन की विषय-आशय को झाड़ फेंकने हेतु ही तो साधना (तपस्या) है! तपस्वी, योगी के अलावा यह इतना आसान काम नहीं है,मन की विषयों को इच्छा अनुसार झाङ फेंकना!
विषेश कर काम,क्रोध,लोभ,मोह आदि का प्रभाव ,शोक-दुःख का प्रभाव, शारीरिक पीङा या बिमारी आदि का प्रभाव से छुटकारा पाना आम आदमी के लिए बङे कठिन है। परन्तु यह सब प्रभाव से भी छुटकारा पाया जा सकता है। इसका प्रमाण बहुत महात्मा और महापुरुषों ने अपने जीवन में आचरण कर दिखा गयें हैं ! अर्थात् मिसाल कायम (दृष्टांत स्थापित) कर कर गए हैं । ‘संसारिक जीवन में है_उसके द्वारा और कुछ नहीं होगा’-यह सोचकर हमें दुर्बल नहीं होना चाहिए ।अनेकों साधक अपने प्रथम जीवन में संसार करने के उपरांत भी सिद्धि प्राप्त कर चुके हैं। बहुतों बङे धनी घरानो मे जन्मे थें परन्तु तत्पश्चात सर्वत्यागी संन्यासी हो गयें। शिक्षा के सर्वोच्च डिग्री धारण करते हुए भी बाकी का जीवन ध्यान-जाप, साधन-भजन में बिता चुका है। इस प्रकार ढेरो उदाहरण दिया जा सकता है। जो व्यक्ति जिस किसी अवस्था में क्यों न हो , ईश्वर मुखी या ईस्ट मुखी होने से ही जीवों का कल्याण होगा।
(कहानी – स्वामी परमानंद जी।संकलक श्रीधर बनर्जी ” कथा प्रसंग “।) [Translated by Sudhir Sharma a former student of Paramananda Mission, Banagram. ]
– – – – – बङे संन्यासी गुस्से में आकर बोलें- ” वह जो तुम,एक युवती नारी को खुले बदन, कौपिन पहना अवस्था में ही गोद में उठाकर नदी पार कराया? ”
नवीन संन्यासी घटना क्रम को स्मरण कर बोलें, ” ओ–हो: अच्छा-अच्छा! परन्तु वह तो सुबह की बात है -अभी तो शाम हो चुका है! इसके अलावा मैं तो उस युवती को नदी पार कराने के उपरांत ही गोद से उतार दिया था।आप क्यूँ अभी तक मन में ढोयें जा रहें हैं?
कहानी सुनकर वहाँ मौजूद सभी ने हँसने लगा। गुरु महाराज खुद भी हँस रहें थे।उनके मुखङे की सुन्दर हँसी _अद्भुत, अनमोल-अतुलनीय था। ( छोटे संन्यासी द्वारा कृत कार्य की बात, बङे संन्यासी द्वारा अपने मन में ढोयें जाना। संध्या तक उसे दवायें न रखकर उजागर कर देना——)
अब वें ( गुरु महाराज) कहने लगें- “इस प्रकार हीं हम जन्म-जन्मान्तर का संस्कार मन मे ढोये जा रहें हैं। मन को मुक्त होने नहीं दे रहा है – आजाद पंछियों के तरह मन अननंत आसमान में बिचरण नहीं कर पा रहा है! स्थूल शरीर का केंद्रीक – जागतीक,लेन-देन में ही सीमाबद्ध होकर रह जा रहा है।
तो फिर मन को संकल्प-विकल्प रहित अवस्था किस प्रकार प्राप्त होगा! प्राप्त क्या नहीं होगा ? परन्तु देखो यह अवस्था को प्राप्त करना हीं मानव जीवन का लक्ष्य है,वही अंतिम या चरम दशा है। परन्तु यह लक्ष्य पर न पहुँचकर दिशा हीन होकर इंसान भटक रहा है । सटीक लक्ष्य कि ओर चलना सम्भव नहीं हो पा रहा है! जङ(भौतिक) विज्ञान कि नज़रिये से देखा जाये_तो पृथ्वी का सब कुछ अविराम निम्नाभीमुखी है। पृथ्वी का केंद्र कि ओर! उपर उठने ना देना पृथ्वी का गुरुत्वाकर्षण का धर्म है। यहाँ उपर उठने के लिए हल्का होना हीं होगा – जितना भारी होगा उतना ही निम्नगामीता बढ़े गा! अर्थात मन का विषय-आशय का वस्तु , चिंता का विषय वस्तु जितना स्थूल होगा, जितना भारी होगा उतने ही निम्नगामी होगा। स्थूल शरीर धारन कर मनुष्य का मन में स्थूल चिंता या पार्थिव विषय समुह का चिंता ना हो यह सम्भव नहीं है_परन्तु उसे मन में रख कर नहीं चलना है! बिन कारण मन में बोझ डालने से क्या फायदा होगा। वह नवीन संन्यासी के तरह हीं कहना होगा _” उसे तो मैंने सुवह कब का नदी पार उतार आया हूँ , आप क्यूँ अभी तक मन में ढोयें जा हरें हैं? ”
ठाकुर श्री रामकृष्ण देव भी कहें थें-” मनुष्य मन से ही बंधा है,और मन से ही मुक्त है!” कोई विषय, कोई दुश्चिनंता जो मन को ठेस पहुँचा रहा है, मन को पीङा दे रहा है _ उसे मन से बाहर निकाल फेंकने से ही और कोई कष्ट नहीं रहेगा ! मन की विषय-आशय को झाड़ फेंकने हेतु ही तो साधना (तपस्या) है! तपस्वी, योगी के अलावा यह इतना आसान काम नहीं है,मन की विषयों को इच्छा अनुसार झाङ फेंकना!
विषेश कर काम,क्रोध,लोभ,मोह आदि का प्रभाव ,शोक-दुःख का प्रभाव, शारीरिक पीङा या बिमारी आदि का प्रभाव से छुटकारा पाना आम आदमी के लिए बङे कठिन है। परन्तु यह सब प्रभाव से भी छुटकारा पाया जा सकता है। इसका प्रमाण बहुत महात्मा और महापुरुषों ने अपने जीवन में आचरण कर दिखा गयें हैं ! अर्थात् मिसाल कायम (दृष्टांत स्थापित) कर कर गए हैं । ‘संसारिक जीवन में है_उसके द्वारा और कुछ नहीं होगा’-यह सोचकर हमें दुर्बल नहीं होना चाहिए ।अनेकों साधक अपने प्रथम जीवन में संसार करने के उपरांत भी सिद्धि प्राप्त कर चुके हैं। बहुतों बङे धनी घरानो मे जन्मे थें परन्तु तत्पश्चात सर्वत्यागी संन्यासी हो गयें। शिक्षा के सर्वोच्च डिग्री धारण करते हुए भी बाकी का जीवन ध्यान-जाप, साधन-भजन में बिता चुका है। इस प्रकार ढेरो उदाहरण दिया जा सकता है। जो व्यक्ति जिस किसी अवस्था में क्यों न हो , ईश्वर मुखी या ईस्ट मुखी होने से ही जीवों का कल्याण होगा।
(कहानी – स्वामी परमानंद जी।संकलक श्रीधर बनर्जी ” कथा प्रसंग “।) [Translated by Sudhir Sharma a former student of Paramananda Mission, Banagram. ]