शिष्य का घर पर रहकर उसका आदर सम्मान प्यार भक्ति देख कर तथा खाने -पीने का सुंदर व्यवस्था हो रहा था । यह सब देख कर , उसे वहाँ से जाने का मन नहीं चाह रहा था! और इधर सोने का सारे सामान देखकर गुरुदेव का लोभ भी कम नही हो रहा था ! जो भी हो एक दिन रात को गुरुदेव शिष्य से कहा , ” सुनो बेटा ! कल सुबह मैं चले जाऊंगा। मैं यहां से और किसी शिष्य का घर नहीं जाऊंगा – सीधा अपने घर लौटना है । इस घर का सोने का पलंग, सामान सामग्री, सोने का थाली , गिलास , कटोरा यह सब शायद किसका कह रहा था ?” शिष्य (लकड़हारे) ने तुरंत हीं हाथ जोड़कर कहा, ” जी गुरुदेव ! यह सब कुछ आपका है! आपका श्री चरणकृपा से तो मेरा यह सब कुछ है! इसलिए इस घर का वस्तुएँ सिर्फ ही क्यो – मेरा घर की सारी सामान आपका है, ऐसा कि यह घर भी आपका है ।”
चालाक गुरुदेव ने कहा , ” जब सब मेरा ही है तो, सोने का सारे सामान ( खाट-पलंग , थाली, गिलास कटोरा ), जाते समय साथ लेकर जाऊंगा।” शिष्य ने कहा , ” जी गुरुदेव ! आपका कृपा से ही तो मेरा यह सब कुछ हुई है, इसलिए सबकुछ आपका ही है! अर्थात आप यह सब जरूर ले जा सकते हैं ! परंतु आपके ऊपर मेरा यह विश्वास है कि, यह सब सामान जाने के उपरांत भी फिर से आपकी कृपा से मुझे यह सब सामानो से भी अच्छे-अच्छे सामान प्राप्त होगा।” यह बात सुनकर गुरुदेव बहुत प्रसन्न हुए शिष्य को बहुत-बहुत आशीर्वाद करते हुए सारे सामान को बांधना शुरू किया। सामान सारे बांधने के उपरांत उसे ले जाने के लिए एक बैलगाड़ी का भी इंतजाम करने को कह कर विश्राम करने के लिए चला गया।
सुबह -सुबह उठकर शिष्य ने एक बैल गाड़ी ( उन दिनों सङक पर माल ढोने का एकमात्र जरिया बैलगाड़ी हुआ करता था।) लेकर दरवाजे पर खड़ा हो गया । गुरुदेव ने नौकर को आदेश दे रहा था, गाड़ी में ” यह उठाओ , गाड़ी में वह उठाओ” — गुरुदेव का मन फिर भी नहीं भर रहा था – जितना भी सामान ले रहा था, उसे लग रहा था और थोड़ा लूँ! परंतु शिष्य हाथ जोड़कर एक तरफ खड़े होकर प्रश्न चित्त से सब कुछ देख रहा था। घर की जो सारी मूल्यवान सामान था सारे बंधा कर गाड़ी पर लद कर भर चुका था, तब गुरुदेव ने उस लकड़हारे शिष्य के पास जाकर विदाई लेकर उसे आशीर्वाद देकर जाने के लिए अपना पैर आगे बढ़ाया । # अचानक तभी – शिष्य ने गुरुदेव का दोनों पैर पकड़ कर कहा, ” गुरुदेव। ! थोड़ा ठहरिए , मैं घर से अभी आता हूं, उसके बाद आप जाइएगा। ” गुरुदेव ने सोचा मूर्ख लकड़हारा शायद और कुछ मूल्यवान द्रव्य सामग्री लाने गया है — जो मैं लेना भूल गया हूं ! परंतु लकड़हारा हाथ मे एक चमचमाती कुठार लेकर बाहर आया ! गुरुदेव की सामने आकर कुठार को ऊँचे उठाकर कहा, ” गुरुदेव इसे आप पहचान रहे हैं ना? यह वही कुठार है जिसके डर से आपने उस दिन मुझे दीक्षा देने के लिए वेवश हो गए थें । और अपना दोनों श्रीचरण का पादुका हमें सौंप दिए थें । वह दोनों चरण पादुका को आपका चरण सोचकर सेवा करके मेरे इतने धन – दौलत , महल , सामान सामग्री – जो कुछ भी ! इतने दिनी बाद आपको करीब से पाया हूं, और कभी इधर आएंगे या फिर नहीं जिसका कोई ठिकाना नहीं है ! इसके अलावा आपका उम्र हो चुका है, कभी आते हैं कब सुन लूंगा कि आप और नहीं है! इसलिए मन ही मन में सोचा – आपका श्री चरण पादुका पुज कर यदि मैं इतना धन-दौलत पाया हूं तो , साक्षात आपका दोनों चरण का पूजा करने पर क्या पता और कितने धन -दौलत प्राप्त होगा इसलिए यह कुल्हाड़ी लाया हूं, आपका दोनों चरण को काट कर रख लूंगा । आप अनुमति दें तो एक झटके में अलग कर (उतार ) दूं !”
गुरुदेव ने देखा , यह शिष्य को जितना मैं मूर्ख समझ रहा था वह उतना मूर्ख है नहीं! _ यानी कि मुझे ही मूर्ख बनाया है! जिस सोने और धन दौलत किमति सामान के मोह पढ़कर लोभ की मात्रा सीमा को अतिक्रमण किया था, शिष्य ने उसी जगह पर बढ़िया प्रहार किया है! अति लज्जित होकर गुरुदेव ने शिष्य के सामने हाथ जोड़कर कहा , ” लकड़हारा! मैं बहुत ही शर्मिंदा हूं ! कुछ क्षण के लिए मोह और लोभ से सम्मोहित होकर मैं अपना होश और हवाश खो बैठा था , तुमने मेरा होश लौटा कर बड़े ही उपकार किया है – बेटा ! मुझे और कोई चीज का जरूरत नहीं है , सारे सामान तुम्हारा ही रहेगा! तुम सिर्फ मुझे अभी जाने का बंदोबस्त कर दो!”
लकड़हारे गुरुदेव का पैर पकड़ कर रोने लगा , क्योंकि उसे थोड़ा बुद्धि या चालाकी का प्रयोग करना पड़ा _ इसीलिए! इसके बाद कहा, मैं यथा संभव उपयुक्त प्रणामी निर्दिष्ट समय पर आपका घर भेज दिया करूंगा। आपका कोई तकलीफ मैं होने नहीं दूंगा , परंतु आप मुझे वचन दीजिए , वर्ष उपरांत कम से कम एक बार आप हमारे गृह में आकर अपना चरण धूली दीजिएगा !” गुरुदेव ने वचन देकर लकड़हारे को बहुत बहुत आशीर्वाद देकर अपने यात्रा को प्रस्थान किया ।
इस कहानी को गुरु जी ने बहुत ही मजे से कहें थे । कहानी कहते-कहते उनकी अनमोल भुवन मोहिनी हंसी वो बोलने लायक नहीं था ! इसके बाद उन्होंने कहा देखो बातों में यह है कि “हेगो गुरु का पेदों शिष्य ” ( अर्थात हगने वाला गुरु का पादने वाला शिष्य ) । ठाकुर श्री रामकृष्ण का उपमा स्वरूप कहे थे – ” ढोङा सांप जब मेंढक को पकड़ता है , तब मेढक भी कष्ट झेलता है और सांप भी! और जातसांप (राजसांप) को पकड़ने से तीन हाँक , ( बोली) मेंढक तो जात साँप का जहर से ही मर जाता है । डोङा साँप तो मेंढक को ना निंगल (ग्रास) सकता है नाहि छोड़ सकता है ! इसलिए दोनों का ही कष्ट होता है! इसी प्रकार साधारण साधन – भजन रहीत गुरु का चंगुल में जकङकर शिष्य का अवस्था बहुत ही दर्दनीय हो जाता है – – दोनों ही नाना तरह की दुख और कष्ट भोक्ता है !
इस प्रकार का घटना जब बहुत ज्यादा बढ़ जाते हैं, साधारण गुरु से और कोई काम हो नहीं रहा हो —- तब समाज में सद्गुरु का आविर्भाव होता है ! वही सब विभिन्न परंपरा का शिष्य को खुद अपने दायित्व लिया करते हैं और विभिन्न तरह के परंपरा को बदल देते हैं ! फल स्वरुप फिरसे जनजीवन में , तथा समाज में एक नए आध्यात्मिक शक्ति का ज्वार आता है, मानव का कल्याण होता है , समाज का विकास होता है ।
आध्यात्मिक शक्ति को छोड़कर अन्य किसी प्रकार से कोई समाज यदि विकसित होता है , तो फिर वह अगले (दुसरे) समाज के लिए हानिकारक हो जाएगा! शरीर का कोई विशेष अंग अगर अचानक से फूल उठे तो – – वह, उस अंग के लिए साम्यता नष्ट कर देता है , रोग उत्पन्न करता है । यहां भी वही है ! एकमात्र आध्यात्मिक शक्ति संपन्न कोई समाज ही बाकी सारे समाज को अनुशासन सिखा सकता है- – ज्ञान वाणी से, प्रेम का प्रवाह विस्तार करके , तथा नि:स्वार्थ सेवा का माध्यम से ! युगों- युगों से ही भारतवर्ष यह काम करते आ रहा है और भविष्य में भी करेगा।
समाप्त ।
[कहानी स्वामी परमानंद जी । संकलक श्रीधर बनर्जी कथा प्रसंग । Translated by Sudhir Sharma, a former student of Bangaram Paramananda Mission.]