किसी जंगल में एक साधु बाबा तपस्या किया करते थें । दीर्घ काल साधना के फल स्वरुप उन्हें कई सिद्धियां प्राप्त हो चुकी थी। इसमें से एक हुआ पशु पक्षियों का भाषा समझना और उनके साथ संजोग स्थापन कर पाना। उस जंगल में ढेरों तोतें रहा करता था और शिकारी बीच-बीच में आकर उसे जाल में फंसा कर ले जाया करता था । यह देख कर एक दिन साधु बाबा को दया हुआ । वह जंगल में जाकर, शिकारी द्वारा बिछाए जाल में किस तरह तोतें पकड़े जाते हैं यह देखा । इसके बाद तोतों के पास जाकर उन्हें अपने पास बुलाया। चिड़ियाँ सारी उनके बुलाने पर उनके आसपास जाकर जमा हुआ । साधु बाबा शिकारी द्वारा बिछाए जाल के विषय में सभी तोतों को अच्छी तरह से समझाएं और यह भी सिखाएं ” शिकारी आएगा , दाना डालेगा, जाल बिछाए गा, लोभ में मत फसना ! “
तोतों का दल साधु बाबा की बात बहुत ही ध्यान से सुना और उसे याद कर लिया । साधु बाबा को चले जाने के बाद वह सब मिलकर साधु बाबा का सिखाएं बात को जपने लगा ” शिकारी आएगा, दाना डालेगा , जाल बिछाएगा लोभ, में मत फँसना । साधु बाबा संतुष्ट होकर अपनी कुटिया में जाकर साधन-भजन में मन लगाया ।
अगले दिन ठंडे की मौसम की ढलते दिन के समय वृद्ध साधु बाबा एक पत्थर के ऊपर बैठकर सूर्य की अंतिम गर्मी को उपभोग कर रहे थें_ अचानक से एक आवाज उनको मन को बिचलीत कर दिया ! कलरव के उत्पत्ति स्थल के तरफ दृष्टि देते हीं साधु बाबा का नजर एक शिकारी के ऊपर पड़ा ! वह शिकारी अपने कंधे पर एक बड़े से जाल को समेट कर ले जा रहा था और उस में फंसे हुए चिड़ियों की आवाज आ रही थी। परंतु वह सब एक आवाज़ में क्या कह रह था उन्होंने उस आवाज को ध्यान से सुनने का प्रयास किया, और वह बात को सुनते हीं उन्हें आश्चर्य हुआ !_ अरे ! यह तो उनके ही सिखाई हुई शब्द को चिङीयाँ सारी बोल रही थी” शिकारी आएगा, दाना डालेगा, जाल बिछायेगा , लोभ में मत फँसना !” कहानी को इतनी दूर तक रहने के उपरांत गुरु महाराज जी ने कहे” तो क्या समझे ? ‘जगत जैसा का तैसा ‘! एक निश्चित नियम से , निश्चित लय से जगत चलता है! वह सुर- ताल- लय को बदलने वाले तुम /आप कौन होते हो ? जगत – संसार का तुम क्या उपकार कर सकते हो? कभी यह बात सोचना भी नहीं ! सदा यह सोचना _ मैं और क्या कर सकता हूं ! फिर भी यदि ईश्वर का कोई काम में आता हूं _ इसलिए कोई भी सेवा कार्य में अपने को नियुक्त करना ही अच्छा होगा।
ठाकुर श्री रामकृष्ण के समय ‘दया’ शब्द को इंसान बात-बात पर प्रयोग किया करता था। ” जीवो का दया “_ शब्द को विशेषकर वैष्णव समाज में प्रयोग हुआ करता था । ठाकुर एक दिन भाव ग्रस्थ अवस्था में वह बात को बदल दिएं , कहें _ ” जीवों का दया ” नहीं _ ” जीवों का सेवा “। और अन्य जीवों की अपेक्षा मनुष्य में ईश्वर अधिक प्रकाशमान हैं इसीलिए मनुष्य का सेवा से हीं ईश्वर अधिक प्रसन्न होते हैं । इसीलिए कहा गया है” मानव सेवा ही माधव सेवा”।
गुरु महाराज और भी कहें थें ” देखो, कहानी में साधु बाबा तो तोतों का उन्नति करने का प्रयास किएं थें! परंतु कर पाए क्या? नहीं कर पाएं ।
यहां पर एक बात को समझना होगा, किसी का सेवा या उपकार करना भी हो तो , उसके योग्य बनना पड़ेगा ! नहीं तो दूसरों का भला करने की बजाय ज्यादातर मनुष्य उसका हानी कर बैठता है !
इसीलिए सेवा करना चाहते हुए भी पहले अपने आप को उपयुक्त रूप से गठन करना होगा _ तभी उसके द्वारा ठीक-ठाक से सेवा का कार्य होगा ।
हमारे मिशन का विशेष उद्देश्य है ‘सेवा और साधना ‘ यूँ कि सिद्ध साधक का ‘सेवा’ हीं ‘साधना’ हो उठता है ! उनके द्वारा जो भी कार्य संपन्न क्यों ना हो, वहीं सेवा हो उठता है , इसीलिए परमेश्वर का आराधना हो जाता है ! यहां पर कहानी में तोते पक्षीयाँ साधारण मनुष्य का रूपक है। मनुष्य बहुत कुछ ही जानता है, बहुत कुछ ही समझता है परंतु वह सब शिक्षा को अपने जीवन में आचरण नहीं करता ! वह दूसरों को ज्ञान देता है, उपदेश देता है _ परन्तु खुद नहीं पालन करता है!
मनुष्य जीवन भर कितने ना हितोपदेश पढें या सुने, कितनों भी सद् ग्रंथ पाठ करें, महापुरुषों से कितनों भी शिक्षा प्राप्त करें _ परंतु कार्य क्षेत्र में कुछ भी प्रयोग नहीं कर पाता है । कहानी का तोतों के तरह सिर्फ कंठस्थ करता है जीवन चर्चा में नहीं उतारते !
इसलिए तुम सब भी ऐसा मत करो। साधन-भजन में डूब लगाओ ! अपने आप में गोता लगाकर – अमूल्य (अपरूप) रत्न को बाहर लाना होगा ! अरुप प्राप्त कर, तभी तुम अपरूप बनोगे !! जब तक आत्म सिद्धांत का बोध (ज्ञात) नहीं होता तब तक जन्मचक्र का में ‘आना जाना ‘और ‘रोना हंसना’ ! बोध का बोध _होने पर और किसी भी व्याधा (जन्म मृत्यु) द्वारा अकाल मृत्यु नहीं होता ।।
। समाप्त ।
[ कहानी स्वामी परमानंद जी । संकलक श्रीधर बनर्जी ‘कथा प्रसंग’। Translated by Sudhir Sharma, a former student of Bangaram Paramananda Mission.]