हम बात कर रहे हैं थें दु:ख का कारण कहानी का उस जगह पर जहाँ भगवान बुद्ध का आदेश पाकर बौद्ध श्रमण पुर्णा दु:ख का कारण खोजने निकल पड़ा था । और किसी आलीशान बंगले का वृद्ध मालिक के पास जाकर उन्हें चिन्तित देख उसका दुःख का कारण जानने का प्रयास किया _अब आगे- – –
महाशय” ! आपको देखकर यह ज्ञात हो रहा है आप बड़े चिंतित और दु:खी हो । परंतु आपका दु:ख क्या है ? ” वृद्ध व्यक्ति बोले – ” महात्मा जी ! आप एक संन्यासी- श्रमण आप क्या समझेंगे एक गृहस्थ वृद्ध का दर्द ! यह जो विराट उज्जवल प्रासाद देख रहे हैं और रेलिंग से घेरा शौकीन फुलवारी, जलाशय – यह सब मैंने बनवाया था ! जीवन भर बहुत परिश्रम कर ढेरों पैसा अर्थ जमाया था, बच्चों को उच्च शिक्षा देकर बड़े बनाने हेतु विभिन्न प्रकार का व्यवस्था किया था । इसके बाद अर्ध उम्र के पश्चात सब मिलकर एक साथ शौक से आनंद पुर्वक खुशी से रहने हेतु – यह आलीशान प्रासाद को मैंने बनवाया था । परंतु हुआ क्या ? घर और बागीचे का सारे का काम समाप्त होते ही मेरे पत्नी हमें छोड़ कर इस दुनिया से चली वसी , और बाल बच्चे एक-एक कर अपने अपने कर्म क्षेत्र पर नियुक्त होकर स्त्री-पुत्र -कन्याओं को लेकर चले गए ! अभी है तो शायद वर्ष भर में एक बार या दो बार यहां घूमने आया करता है , और मेरे साथ भेंट मुलाकात कर फिर चला जाता है । अभी मैं वृद्धावस्था में अकेले एक यक्ष के तरह विशाल बंगले को जकड़े हूं और मन ही मन अपने को दोषी ठहरा हूं – क्यों इतने बड़े घर मैंने बनवाने गया था ? अगर हमारा यह शौकीन घर ना होता तो – मैं भी अपने बाल-बच्चे पोते- पोती आनन्द से समय बिताता । इतने बड़े घर में अकेला रहना कितने दर्द होता है – – यह मैं किसी कहूँ बाबा । “- इतना बोलकर वृद्धा जोर- जोर से रो पड़ा ।
दु:ख का कारण खोजने में विफल मनोरथ पूर्णा फिर से चलना शुरू किया– अब चलते चलते शहर का दूसरे प्रान्त में आया । अंतर में विचार चल रहा है- घटनाक्रम जिस प्रकार घट रहा है जिससे पूर्णा बहुत ही भ्रमित है । एक बार देखा किसी का गृह हीनता ही दु:ख का कारण है ,तो दूसरे क्षण देखा विशाल गृह होना भी किसी को दु:ख का एक मात्र कारण है – तो असली कारण क्या है ? भगवान बुद्ध जब खुद उन्हें दु:ख का कारण खोजने का निर्देश दिए है , तो रुकने से काम नहीं चलेगा _ दिन का अंत में लौटकर भगवान बुद्ध को सही कारण बताना हीं होगा ! तेज गति से पैर आगे चलाते रहा है पुर्णा ! बहुत देर तक चलने के पश्चात थक कर पूर्णा एक बृक्ष के पास आकर कुछ देर के लिए विश्राम करने लगा। दिमाग में हजारों बिचार जाग रहा है – – भगवान बुद्ध तो अंतर्यामी हैं – वह खुद सब जानते हैं । तो फिर यह विचार करने के लिए मुझे ( पुर्णा) भार क्यों दियें ? अचानक उनके कानों में रोने की आवाज सुनाई दिया – कुछ लोग मिलकर शायद बङे दु:ख से बिलाप कर रहा है । पूर्णा धीरे धीरे आगे जाकर देखा एक घर में परिवार का सारे सदस्य अर्थात स्वामी- स्त्री लड़के-लड़कियां सभी मिलकर रो रहा है । श्रमण शांत स्वर में उनसे पूछा – ” क्या हुआ आप सभी को—- इतने क्या दुःख है आपका ? सब मिलकर रो रहे हो ऐसा क्या घटना घटा ?” उस घर की महिला उत्तर दिया – ” बाबा हम किसान , खेती-बारी कर हम सभी को अच्छे से ही दिन गुजर रहा था । परंतु अभी मेरा स्वामी बहुत दिनों से बीमार पड़ा है – इसलिए कोई आमदनी नहीं है । खेतों में खेती नहीं हो रहा – – इसलिए एक भी अनाज नहीं है,
पैसा-कौड़ी भी नहीं है । काफी दिनों से बाल बच्चों को भर पेट खाना नहीं दे पाया हूं – – स्वामी का इलाज भी नहीं करा पा रहा हूं । हमें पैसे-कौङी का बहुत ही अभाव है – – यदि हमारे पास अर्थ होता तो , हमारे सारे दु:ख-दर्द का समापन हो जाता ।” पुर्णा व्यथित चित्त होकर सब सुना और सोचा ” ओ: , तो फिर अर्थ (पैसा-कौङी ) ना रहना ही दुःख का जङ है।” अब लौटने का वारी – – आनंदित पुर्णा ! परन्तु फिर एक जगह रुकने के लिए मजबूर हो गया एक सज्जन व्यक्ति अपने सर पर थप्पड़ मार मार कर रो रहा था!
” क्या हुआ आपको ? इस प्रकार दु:ख जाहिर क्यों कर रहे हो – आपका दु:ख का कारण क्या है ? ” पुर्णा उस व्यक्ति को पूछा । वह व्यक्ति सर पिटकर कर बोला – “आपको क्या बताउं भाई साहब – मेरे दु:ख का कारण ! सारा जिंदगी बङे परिश्रम किया हूं , पेट में ना खाकर – विश्राम भी किए बिना , कष्ट झेलकर सिर्फ अर्थ ही संचय किया हूं ! अर्थ संचय – करना ही मेरे जीवन का एकमात्र नशा था । परिवार के किसी के ओर देखा नहीं- – अपने सुख शांति का विषय भी सोचा नहीं, सिर्फ रुपैया-पैसा इकट्ठा करता गिया । अब मेरा जीवन का संध्या काल , मेरे सारे परिवार कृपन्ता ( कंजूसी ) के कारण मुझे छोड़कर चला गया । मेरे पास संपत्तियां ,अर्थ , सोना-चांदी है – परंतु यह सब मेरे लिए काल बन गया । ना मैं उसे किसी को दे सकता और ना ही उसे मैं भोग कर सकता । जीवन भर कष्ट कर अर्जित धन-संपत्ति सारा रात जागकर पहरा देता हूं – ताकि चोर-डकैत लेकर ना भाग जाए ! और दिन भर अकेले-अकेले अपने भाग्य का परिहास का बात सोच सोच कर बिलाप करता हूं । यही मेरा दु:खमय जीवन है ! काहे को मरने हेतु पैसा संचय करने गया – यह अर्थ ही मेरे जीवन का सारे अनर्थ का जड़ बन गया !” यह बोलकर वह व्यक्ति फिर रोने लगा ।
पूर्णा महा संकट में पड़ गया ! कितने मुश्किल कि बात है ! एक बार जहां दुख का कारण निर्धारण करना चाहता है तो ठिक ठीक उसका विपरीत कारण आकर हाजिर होता है । तो क्या किया जाए ! गंभीर चिंतन में प्रवेश किया पूर्णा ! इधर दिन भी ढलने वाला था , दिनामणि अस्त होने को चला था । द्रुतगति पर से पैर चलाते हुए पूर्णा पहुंच गया वहां स्थान, जहां पर भगवान बुद्ध भक्त के परिवृत (बेस्टन) होकर कुछ दिनों से आवस्थान कर रहे थें । पूर्णा को आते ही देख कर भगवान आनंदित होकर पूछें ” पूर्णा ! मैं कब से तुम्हारा प्रतीक्षा में बैठा हूं – कहो तुम्हारे अभिज्ञता (उपलब्धियां ) का बात ! क्या तुम जान पाए हो दु:ख का कारण क्या है !” पूर्णा नतमस्तक होकर खड़ा रहा ,कोई उत्तर दे नहीं पाया । भगवान बुद्ध विस्मित हंस कर बोले “क्या हुआ ? दिनभर नगर परिभ्रमण कर तुम्हारा अभिज्ञता क्या है वही हमें बताओ ? ” पूर्णा विस्तारपूर्वक औ दिन भर की घटना समूह को वर्णन किया ।
बुद्ध सब कुछ सुनने के बाद पूर्णा से पूछें ” तो सिद्धांत (निर्णय) का किया पूर्णा ?” – पुर्णा नतमस्तक होकर खड़ा रहा – कोई उत्तर दे नहीं पाया । तब उपस्थित सभी ने भगवान बुद्ध को ही पूछा – “हे प्रभु ! आप ही इसका समाधान दें – बताएं इस संसार में दु:ख का मूल कारण क्या है ? और इससे परित्राण होने का क्या उपाय है ?” भगवान बुद्ध कुछ क्षण निरुत्तर रहे – फिर कहने लगे – ” संसार में दुख का एकमात्र कारण है “तृष्णा ” (प्यास) अर्थात वासना, कामना इत्यादि भोग का इच्छा या आकांक्षा ! मनुष्य पंच कर्मेंद्रिय और पंच ज्ञानेंद्रिय द्वारा जागतिक सांसारिक रूप – रस – शब्द – गंध – स्पर्श को भोग करने का वासना करता है , परंतु मन नियंत्रण में ना होने के कारण मन में उत्पन्न अबदमित कामना-वासना मनुष्य को ताङना कर रहा है _ पीड़ा दे रहा है । इसलिए कहा गया है – मनुष्य का सभी दु: ख का मूल कारण है ” तृष्णा ” !
उपस्थित जनसाधारण फिर पूछा – ” हे प्रभु! तो इससे मुक्ति पाने का या परित्राण पाने का उपाय क्या है ?” इसके उत्तर में बुद्ध का वही प्रसिद्ध चार आर्यसत्य बोला – ” संसार में दुख है ; दु:ख का कारण है ; दु:ख से परित्राण है और दु:ख से परित्राण का उपाय भी है । ”
कहानी समाप्त कर गुरुमहाराज कहें संसार जगत में दु:ख है और दुख का कारण ‘तृष्णा ‘अर्थात कामना और वासना । और मनुष्य हीं इसे ( पराजय कर सकता है ) जागतिक कामना – वासना के हाथों मुक्त या परित्राण हो सकता है ! और इसके लिए जरूरत होता है साधना ! अष्टांगिक योगमार्ग का विधान दिया था भगवान बुद्ध । निष्ठा पूर्वक यह अष्टांगिक मार्ग अवलंबन करने पर मनुष्य का निर्वाण लाभ संभव है । परिनिर्माण या महानिर्माण ही हुआ जागतिक दु:ख से संपूर्ण परित्राण ।।
समाप्त
( कहानी स्वामी परमानंद जी । संकलक श्रीधर बनर्जी कथा प्रसंग । Translated by Sudhir Sharma, a former student of Bangaram Paramananda Mission. )