एक दिन एक ब्राह्मण किसी कार्य हेतु जंगल के रास्ते जा रहा था। रास्ते में बाघ का डर था इसलिए वह डर डर कर चल रहा था। अचानक जंगल रास्ते की मोड़ मुङते हीं बाघ का गर्जन सुनाई दिया। गर्नज सुनते हीं ब्राह्मण का प्राण जाए जाए की हालत होने लगा। जा: ! बाघ की पलड़े में पड़ गया और कोई चारा नहीं रहा। परंतु आश्चर्य होकर देखा उसके सामने बाघ तो है सही – परंतु पिंजरे में बंद है। कोई शिकारी बाघ पकड़ने के लिए जाल बिछा रख्खा था – वही फंदे (पिंजरे) में बाघ बंद पङा है।
ब्राह्मण का घर जंगल के आस पास ही था, इसके अलावा ब्राह्मण साधन -भजन से कुछ सिद्धियां प्राप्त करने के कारण पशु पक्षियों का आवाज समझना या उनके साथ संपर्क स्थापन करने में कठिनाई नहीं होता था। ब्राह्मण को देख बाघ ने फिर से गर्जन किया – परंतु यह आवाज उसे बचाने के लिए था, एक करुण भरी आवाज का प्रकाश । ब्राह्मण ने उस बाघ को मुक्त कराने के लिए राजी नहीं हो रहा था, क्योंकि बाघ छूटते हीं उसे आक्रमण करेगा ।
बाघ को थोड़ी बहुत बुद्धि ज्ञान था । इसलिए उसने ब्राह्मण को उसके ब्राह्मण धर्म का बात स्मरण कराया। क्षमा, दया इत्यादि ब्राह्मण का धर्म है – चुकी ब्राह्मण का उचित होगा उसे पिंजरे से मुक्त कराये!
यह सब बात सुनकर ब्राह्मण थोड़ा निरूपाए होकर ब्रह्माण धर्म का रक्षा हेतु बाघ को पिंजरे से मुक्त करा दिया । परंतु बाघ बाहर निकलते ही अपने स्वरूप धारण कर लिया ! उसने ब्राह्मण को बोला – “ब्राह्मण! प्रस्तुत हो, मैं तुम्हें खाऊंगा “। डरकर त्रस्त होकर ब्राह्मण थरथर कांपने लगा । बोला – ” ए क्या ! यही तुम्हारा धर्म है ! इतना अकृतज्ञ हो तुम ! उपकारी का उपकार स्मरण रखना तुम्हारा धर्म नहीं है क्या ?” बाघ हंसकर बोला – ” यह सब नीति ज्ञान तुम्हारे जैसा ब्राह्मणों के लिए कारगार है – मेरे जैसा जंगलों के पशु के लिए नहीं । मैं भूखा हूँ ! कल रात को खाने के लिए निकला था तब से मेरा यह हालत है ! रात भर मैने उस पिंजरे में गुजारा – कल से कुछ भी खाना मिला नहीं मुझे ! मैं जंगल का पशु हूँ – भूख लगने पर आहार ग्रहण करना ही मेरा धर्म है । इस वक्त मुझे कोई धर्मज्ञान मत सिखाना। ”
इतना कह कर बाघ ने झपटना चाहा ! ऐसी हालात में ब्राह्मण ने थोड़ा संभल कर साहस कर बोला – ” हे बाघ ! मेरे बात सुनो, तुम मुझे खाओगे ठीक है- परंतु इसके पहले मुझे थोड़ा वक्त दो। मैं ब्राह्मण हूँ — धर्म ज्ञान कभी भी विस्मृत नहीं होता । तुम मुझे तिन दिन का मोहलत दो_ और इस समय किसी भी प्रकार अपने भूख को मिटाओ । मैं इतने देर में एक मीमांसा (फैसला) कर तुम्हारे पास लौट आऊंगा ।
बाघ बोला – क्या ऐसी मीमांसा है ? जो इतने दिन तक तुम कर नहीं पाए और अगले तिन दिनो में कर दोगे ।”
ब्राह्मण बोला – ” शास्त्र की मीमांसा मुझे ज्ञात है । आत्मतत्व का भी कुछ धारणा है । परंतु इस वक्त मैं जिस समस्या का सामने खड़ा हूं – मैं उसका समाधान करना चाहता हूँ । मैने ऐसा क्या अन्याय किया जो धर्म रक्षा करने के वास्ते मेरा ही जीवन संकट में पड़ा ? तो न्याय – क्या है, और अन्याय – हीं क्या है ?
बाघ ने ब्राह्मण को छोड़ दिया— कारण धार्मिक निष्ठावान ब्राह्मण जो लौटकर आएगा इसलिए वह निश्चित था। ब्राह्मण चिंतित होकर चलने लगा – कारण उसे जानना ही होगा, नहीं तो मरने के उपरांत भी शांति नहीं मिलेगा। कुछ दूर चलने के बाद उसने एक व्यक्ति को देखा एक झुंड सूअर चरा रहा था । परंतु व्यक्ति का लम्बाई और गौर वर्ण देखकर शुभ्र वंश का जातक ज्ञात हो रहा था । ब्राह्मण ने उसे जंगल में पाकर सोचा क्यों ना इससे पूछा जाए – क्या उत्तर मिलता है! उसने हंसकर बोला – अहो भाई ! थोड़ा बताओ तो – एक बाघ को पिंजरे से मुक्त करा कर मैंने अपना ब्राह्मण धर्म को रक्षा किया – इसमें मेरा अन्याय कहां था ? यह नहीं करता तो क्या न्याय होता ? मेरे अनुसार संकट में रक्षा ना कर उसे छोड़ कर आना है क्या न्याय होता ? इस वक्त वह मुझे मारकर खाना चाहता है ! तो न्याय – अन्याय का मतलब क्या है ?”
वह आदमी थोड़ी आगे आकर बोला – हे भगवन ! मैं सत्य युग का हरिश्चंद्र ! मैं महाराजा था _ कर्मदोष के कारण सब कुछ खोकर आज मैं सूअर चरा रहा हूँ ! सारा जीवन दान-ध्यान कर गुजरा हूँ – फिर भी चार युग से सजा भोग रहा हूँ – और खोज रहा हूँ न्याय क्या है या अन्याय क्या है ? आज भी उत्तर नहीं मिला – मिलने से तुम्हें बताऊंगा ।” यह कह कर वह चला गया।
( बाकि अगले बार । कहानी स्वामी परमानंद जी। संकलक श्रीधर बनर्जी, कथा प्रसंग__Translated by Sudhir Sharma a former student of Bangaram Paramananda Mission.)
ब्राह्मण का घर जंगल के आस पास ही था, इसके अलावा ब्राह्मण साधन -भजन से कुछ सिद्धियां प्राप्त करने के कारण पशु पक्षियों का आवाज समझना या उनके साथ संपर्क स्थापन करने में कठिनाई नहीं होता था। ब्राह्मण को देख बाघ ने फिर से गर्जन किया – परंतु यह आवाज उसे बचाने के लिए था, एक करुण भरी आवाज का प्रकाश । ब्राह्मण ने उस बाघ को मुक्त कराने के लिए राजी नहीं हो रहा था, क्योंकि बाघ छूटते हीं उसे आक्रमण करेगा ।
बाघ को थोड़ी बहुत बुद्धि ज्ञान था । इसलिए उसने ब्राह्मण को उसके ब्राह्मण धर्म का बात स्मरण कराया। क्षमा, दया इत्यादि ब्राह्मण का धर्म है – चुकी ब्राह्मण का उचित होगा उसे पिंजरे से मुक्त कराये!
यह सब बात सुनकर ब्राह्मण थोड़ा निरूपाए होकर ब्रह्माण धर्म का रक्षा हेतु बाघ को पिंजरे से मुक्त करा दिया । परंतु बाघ बाहर निकलते ही अपने स्वरूप धारण कर लिया ! उसने ब्राह्मण को बोला – “ब्राह्मण! प्रस्तुत हो, मैं तुम्हें खाऊंगा “। डरकर त्रस्त होकर ब्राह्मण थरथर कांपने लगा । बोला – ” ए क्या ! यही तुम्हारा धर्म है ! इतना अकृतज्ञ हो तुम ! उपकारी का उपकार स्मरण रखना तुम्हारा धर्म नहीं है क्या ?” बाघ हंसकर बोला – ” यह सब नीति ज्ञान तुम्हारे जैसा ब्राह्मणों के लिए कारगार है – मेरे जैसा जंगलों के पशु के लिए नहीं । मैं भूखा हूँ ! कल रात को खाने के लिए निकला था तब से मेरा यह हालत है ! रात भर मैने उस पिंजरे में गुजारा – कल से कुछ भी खाना मिला नहीं मुझे ! मैं जंगल का पशु हूँ – भूख लगने पर आहार ग्रहण करना ही मेरा धर्म है । इस वक्त मुझे कोई धर्मज्ञान मत सिखाना। ”
इतना कह कर बाघ ने झपटना चाहा ! ऐसी हालात में ब्राह्मण ने थोड़ा संभल कर साहस कर बोला – ” हे बाघ ! मेरे बात सुनो, तुम मुझे खाओगे ठीक है- परंतु इसके पहले मुझे थोड़ा वक्त दो। मैं ब्राह्मण हूँ — धर्म ज्ञान कभी भी विस्मृत नहीं होता । तुम मुझे तिन दिन का मोहलत दो_ और इस समय किसी भी प्रकार अपने भूख को मिटाओ । मैं इतने देर में एक मीमांसा (फैसला) कर तुम्हारे पास लौट आऊंगा ।
बाघ बोला – क्या ऐसी मीमांसा है ? जो इतने दिन तक तुम कर नहीं पाए और अगले तिन दिनो में कर दोगे ।”
ब्राह्मण बोला – ” शास्त्र की मीमांसा मुझे ज्ञात है । आत्मतत्व का भी कुछ धारणा है । परंतु इस वक्त मैं जिस समस्या का सामने खड़ा हूं – मैं उसका समाधान करना चाहता हूँ । मैने ऐसा क्या अन्याय किया जो धर्म रक्षा करने के वास्ते मेरा ही जीवन संकट में पड़ा ? तो न्याय – क्या है, और अन्याय – हीं क्या है ?
बाघ ने ब्राह्मण को छोड़ दिया— कारण धार्मिक निष्ठावान ब्राह्मण जो लौटकर आएगा इसलिए वह निश्चित था। ब्राह्मण चिंतित होकर चलने लगा – कारण उसे जानना ही होगा, नहीं तो मरने के उपरांत भी शांति नहीं मिलेगा। कुछ दूर चलने के बाद उसने एक व्यक्ति को देखा एक झुंड सूअर चरा रहा था । परंतु व्यक्ति का लम्बाई और गौर वर्ण देखकर शुभ्र वंश का जातक ज्ञात हो रहा था । ब्राह्मण ने उसे जंगल में पाकर सोचा क्यों ना इससे पूछा जाए – क्या उत्तर मिलता है! उसने हंसकर बोला – अहो भाई ! थोड़ा बताओ तो – एक बाघ को पिंजरे से मुक्त करा कर मैंने अपना ब्राह्मण धर्म को रक्षा किया – इसमें मेरा अन्याय कहां था ? यह नहीं करता तो क्या न्याय होता ? मेरे अनुसार संकट में रक्षा ना कर उसे छोड़ कर आना है क्या न्याय होता ? इस वक्त वह मुझे मारकर खाना चाहता है ! तो न्याय – अन्याय का मतलब क्या है ?”
वह आदमी थोड़ी आगे आकर बोला – हे भगवन ! मैं सत्य युग का हरिश्चंद्र ! मैं महाराजा था _ कर्मदोष के कारण सब कुछ खोकर आज मैं सूअर चरा रहा हूँ ! सारा जीवन दान-ध्यान कर गुजरा हूँ – फिर भी चार युग से सजा भोग रहा हूँ – और खोज रहा हूँ न्याय क्या है या अन्याय क्या है ? आज भी उत्तर नहीं मिला – मिलने से तुम्हें बताऊंगा ।” यह कह कर वह चला गया।
( बाकि अगले बार । कहानी स्वामी परमानंद जी। संकलक श्रीधर बनर्जी, कथा प्रसंग__Translated by Sudhir Sharma a former student of Bangaram Paramananda Mission.)