हम बात कर रहे थे बाघ बंधी कहानी का जहाँ ब्राह्मण ने बाघ को पिंजरे से खोलने के पश्चात बाघ उसे खाना चाहता था। परंतु ब्राह्मण को कहने पर बाघ ने उसे किसी मीमांसा हेतु छोड़ दिया ,और ब्राह्मण ने इस समस्या का हल करने हेतु एक सूअर चरवाहे से पूछा । पर उन्होंने कहा कि मुझे भी ज्ञात नहीं है । मालूम होने से, मैं आपको बताऊंगा । अब आगे- ब्राह्मण निराश होकर आगे बढ़ने लगा । काफि देर चलने के बाद उसने रोती हुई एक नारी को देखा । अपूर्व रूपवती वह नारी रास्ते के पास अपने सर पर हाथ रखकर चुप-चाप रोए जा रही थी । ब्राह्मण उसके सामने हाथ जोड़कर खड़े होकर पूछा – “आप कौन हो माता ! इस निर्जन जंगल में अकेले ? मैं एक बड़े ही कठिन प्रश्न का उत्तर जानना चाहता हूँ – क्या आपका किसी प्रकार मुझे उत्तर देकर सहायता कर सकते हैं _ माता ? ” ब्राह्मण की बात सुनकर रोती हुई नारी ने कहा – ” मैं सीता ! पतिव्रता धर्म को रक्षा हेतु मैं अपने स्वामी के संग १४ वर्ष के लिए बनवास गई थी । मैं जीवन में कोई ऐसी गलती या अन्याय नहीं कि। परंतु मेरे जीवन में उसके बाद से ही बहुत सारे कठिनाईयाँ और दु:ख-दर्द से भर उठा । राजन (रामचंद्र जी) – भी मेरे साथ बड़े अविचार कियें । वही त्रापर (त्रेता) युग से आज तक मैं जान नहीं पाई क्या न्याय है और क्या अन्याय है ? फलस्वरूप मैं तुम्हें क्या उत्तर दूँ- बेटा ? ”
अवसादग्रस्त होकर ब्राह्मण जंगल के रास्ते आगे बढ़ने लगा । कुछ देर चलने के बाद उसने देखा कि एक युवक कीचड़ में फंसे गाड़ी के पहियों के धक्का लगाकर निकालने का प्रयत्न कर रहा है। _परंतु निकाल नहीं पा रहा है । ब्राह्मणने उसके पास जाकर सब घटना बताया और पूछा– उसका अन्याय क्या था ? थकान के पसीना पोछकर उसने कहा – ” बाबा, मैं कर्ण ! लोग मुझे दान बीर कर्ण कहकर बुलाया करता था। जन्म से ही विधाता मुझ पर नाखुश थें । परंतु अपने पौरुष शक्ति के बलबूते से जीवन में अपना स्थान बना लिया था। सारे जीवन दान – ध्यान – देवसेवा – अतिथि सेवा किया , शस्त्र विद्या में भी सर्वश्रेष्ठ महारथ अर्जन करने के बावजूद धरती मेरे रथ के पहिए को ग्रास कर लिया, निरस्त्र होकर मुझे पराजित और वीरगति प्राप्त होना पड़ा था । वही द्वापर युग से आज तक मैं सोचे जा रहा हूं क्या था मेरा अन्याय ? और भगवान श्री कृष्ण स्वयं मेरे विपरीत मैं रहते हुए भी क्या वें मेरे साथ न्याय किए थें ? परंतु आज तक उसका फैसला नहीं हुआ — इसलिए मैं तुम्हें क्या बताऊं बाबा ( ब्राह्मण देवता) ? ”
ब्राह्मण फिर से आगे बढ़ने लगा । कुछ दूर जाने पर उसे एक लोमड़ी के साथ भेंट हुआ । वह एक उँचे टीले पर खुशमिज़ाज होकर बैठा था। उसे देख ब्राह्मण को थोड़ा शाहस मीला – सोचा लोमङी तो बहुत चालाक होती है , यह जरूर कोई मदद् कर सकता है । उसे सब कुछ बताने पर — लोमङी ब्राह्मण का किसी बात पर विश्वास नहीं किया । बोला – ” ऐसा हो सकता है क्या ! घटनास्थल पर चलो सब देखने के बाद ही इसका विचार करूंगा ।” इधर तिन दिन बिते भी जा रहा था – ब्राह्मण को धर्म रक्षा हेतु सत्य रक्षा हेतु लौटना भी होगा । इसलिए उसने लोमङी के साथ पुनः लौट आया पहले वाले जगह पिंजरे के पास ।
बाघ ब्राह्मण को लौटते दे बहुत खुश था । बोला – ” आओ ब्राह्मण ! तुम्हारा फैसला हो गया क्या ! अब तुम मेरा आहार बनो । ” ब्राह्मण बोला – ” नहीं नहीं ! फैसला अभी नहीं हुआ ! यह लोमड़ी फैसला करेगा । परंतु इसने मेरा बात यकिन नहीं किया – तुम्हीं उसे बताओ तो सत्य घटना क्या है !! ” बाघ के पूछने पर लोमड़ी बोला – ” देखो मैं अभी तक समझ नहीं पा रहा हूँ — जो तुम पिंजरे के अंदर था, परंतु बाहर कैसे आया ? बाघ बोला – यही ब्राह्मण ने ही तो पिंजरे का दरवाजा खोला था।” लोमङी बोला – ” ऐसा क्या हो सकता है ? तुम अंदर था ही नहीं, मुझे लगता है तुम बाहर ही थे ।” बाघ फिरसे उसे समझाने का प्रयत्न किया – परंतु लोमड़ी समझना नहीं चाह रहा था । अंत में निश्चय हुआ – बाघ फिर से पिंजरे के अंदर घुसेगा और ब्राह्मण पिंजरे को खोल कर दिखाएगा किस प्रकार घटना क्रम घटा था ।
उसी तरह कार्य हुआ । बाघ फिर से पिंजरे के अंदर घुसा । लोमड़ी जल्द से पिंजरे का दरवाजा बंद करदिया। हो गया बाघबंधी । अब लोमड़ी ब्राह्मण को बोला – ” अब तुम निश्चिंत होकर जाओ अपने कार्य में ध्यान लगाओ । और कभी भी बाहरी झूठ-झमेले को खींच कर अपने अंदर कि शांति को उलझन में मत डालना।”
इतने दूर कहानी कहने के बाद गुरु महाराज हमें कहें – यहां पर चतुर लोमड़ी गुरु स्वरूप है । साधारण जीव विभिन्न प्रकार की झूठ झमेले में फंस जाता है, उलझ जाता है। फलस्वरूप अपने इष्ट को भुलकर तरह-तरह के हैरान-परेशान कष्ट झेलता है। इस अवस्था में मनुष्य यहां वहां शांति का आश्रय खोजे फिरता है । परंतु जितना उसके अभिज्ञता बड़ता है उतना ही वह देखता है जगत् बड़े ही विचित्र है। सत्य – त्रेता – द्वापर – कलयुग यह चारो युगों में न्याय-अन्याय का कोई मीमांसा नहीं हुआ । आज भी समाज में इसको लेकर वितर्क होता चला आ रहा है – क्या न्याय है,और क्या अन्याय है ! एक दल राम के पक्ष में _ तो दूसरा रावण के पक्ष में ! आज भी भारत, श्रीलंका में भिन्न-भिन्न स्थानों पर रावण का पूजा होता है ! कर्ण बङा या अर्जुन बड़ा – इसको लेकर भी समाज में तर्क का शेष नहीं ! महाराजा हरिश्चंद्र का क्यों इतना दुर्गति यह भी एक बङे वितर्क का बात है ! इस लिए तर्क-वितर्क से कोई भी समाधान नहीं होता या समाधान सूत्र भी नहीं मिलता । समाधान कर सकते हैं सत-गुरु । वें वितर्क में नहीं जाते — वें साधक का घटन – अघटन का जङ या मूल केंद्र में ले जाते हैं । जहां से समस्या आरम्भ हुआ था, इंद्रीआदि रूप बाघ का वहि:जागतिक क्रियाओं से अतिष्ट होना पड़ता है मानव को , गुरु आकर साधक का चेतना को मूल केंद्र में ले जाते हैं । बाघ पिंजरे में घुसने पर खुद खिल्ली जड़ देतें हैं — मानव वहि:जागतिक झमेले से मुक्त होता है । तब शुरू होता है अंतर जगत के रास्ते पर चलना । बाउल गाने में है – ” चलो गुरु जाइ दुर्जन पारे /आमार एक्ला जेते भोई कोरे ।” ( गुरु चलें दोनों उस पार मुझे अकेला जाने से डर लगता है )। यहां पर “डर” का मतलब महामाया का जगत में फंस जाने का डर । परंतु गुरु ही सही रास्ता दिखा देतें हैं– रास्ते का साथी नहीं होते । जाते जाते थम जाने पर, रास्ता भूल जाने पर फिर से आविर्भाव (प्रकट) होतें हैं । उस अर्थ से संग का साथी — हाथ पकड़ कर ले चलना । अंतर्निहित अर्थ समझे तो ! विषय को स्थुल रुप से समझने से नहीं होगा । सूक्ष्म या कारण जगत का चिरंतन साथी — स्थुल जगत में जितना जरूरत हो उतना ही । स्थुल में जो बहुत ही कम क्रियाशीलता, यहां वेग कम होता है – बाधा अनेक है। सूक्ष्म में और भी गतिशीलता है, एवं कारण जगत में समय का बंधन काम ही नहीं करता है, इसी लिए इस अवस्था में कार्य अति शीघ्रता से कर पाना संभव होता है।
( कहानी स्वामी परमानंद जी । संकलक श्रीधर बनर्जी,कथा प्रसंग! Translated by Sudhir Sharma a former student of Bangaram Paramananda Mission. )।
अवसादग्रस्त होकर ब्राह्मण जंगल के रास्ते आगे बढ़ने लगा । कुछ देर चलने के बाद उसने देखा कि एक युवक कीचड़ में फंसे गाड़ी के पहियों के धक्का लगाकर निकालने का प्रयत्न कर रहा है। _परंतु निकाल नहीं पा रहा है । ब्राह्मणने उसके पास जाकर सब घटना बताया और पूछा– उसका अन्याय क्या था ? थकान के पसीना पोछकर उसने कहा – ” बाबा, मैं कर्ण ! लोग मुझे दान बीर कर्ण कहकर बुलाया करता था। जन्म से ही विधाता मुझ पर नाखुश थें । परंतु अपने पौरुष शक्ति के बलबूते से जीवन में अपना स्थान बना लिया था। सारे जीवन दान – ध्यान – देवसेवा – अतिथि सेवा किया , शस्त्र विद्या में भी सर्वश्रेष्ठ महारथ अर्जन करने के बावजूद धरती मेरे रथ के पहिए को ग्रास कर लिया, निरस्त्र होकर मुझे पराजित और वीरगति प्राप्त होना पड़ा था । वही द्वापर युग से आज तक मैं सोचे जा रहा हूं क्या था मेरा अन्याय ? और भगवान श्री कृष्ण स्वयं मेरे विपरीत मैं रहते हुए भी क्या वें मेरे साथ न्याय किए थें ? परंतु आज तक उसका फैसला नहीं हुआ — इसलिए मैं तुम्हें क्या बताऊं बाबा ( ब्राह्मण देवता) ? ”
ब्राह्मण फिर से आगे बढ़ने लगा । कुछ दूर जाने पर उसे एक लोमड़ी के साथ भेंट हुआ । वह एक उँचे टीले पर खुशमिज़ाज होकर बैठा था। उसे देख ब्राह्मण को थोड़ा शाहस मीला – सोचा लोमङी तो बहुत चालाक होती है , यह जरूर कोई मदद् कर सकता है । उसे सब कुछ बताने पर — लोमङी ब्राह्मण का किसी बात पर विश्वास नहीं किया । बोला – ” ऐसा हो सकता है क्या ! घटनास्थल पर चलो सब देखने के बाद ही इसका विचार करूंगा ।” इधर तिन दिन बिते भी जा रहा था – ब्राह्मण को धर्म रक्षा हेतु सत्य रक्षा हेतु लौटना भी होगा । इसलिए उसने लोमङी के साथ पुनः लौट आया पहले वाले जगह पिंजरे के पास ।
बाघ ब्राह्मण को लौटते दे बहुत खुश था । बोला – ” आओ ब्राह्मण ! तुम्हारा फैसला हो गया क्या ! अब तुम मेरा आहार बनो । ” ब्राह्मण बोला – ” नहीं नहीं ! फैसला अभी नहीं हुआ ! यह लोमड़ी फैसला करेगा । परंतु इसने मेरा बात यकिन नहीं किया – तुम्हीं उसे बताओ तो सत्य घटना क्या है !! ” बाघ के पूछने पर लोमड़ी बोला – ” देखो मैं अभी तक समझ नहीं पा रहा हूँ — जो तुम पिंजरे के अंदर था, परंतु बाहर कैसे आया ? बाघ बोला – यही ब्राह्मण ने ही तो पिंजरे का दरवाजा खोला था।” लोमङी बोला – ” ऐसा क्या हो सकता है ? तुम अंदर था ही नहीं, मुझे लगता है तुम बाहर ही थे ।” बाघ फिरसे उसे समझाने का प्रयत्न किया – परंतु लोमड़ी समझना नहीं चाह रहा था । अंत में निश्चय हुआ – बाघ फिर से पिंजरे के अंदर घुसेगा और ब्राह्मण पिंजरे को खोल कर दिखाएगा किस प्रकार घटना क्रम घटा था ।
उसी तरह कार्य हुआ । बाघ फिर से पिंजरे के अंदर घुसा । लोमड़ी जल्द से पिंजरे का दरवाजा बंद करदिया। हो गया बाघबंधी । अब लोमड़ी ब्राह्मण को बोला – ” अब तुम निश्चिंत होकर जाओ अपने कार्य में ध्यान लगाओ । और कभी भी बाहरी झूठ-झमेले को खींच कर अपने अंदर कि शांति को उलझन में मत डालना।”
इतने दूर कहानी कहने के बाद गुरु महाराज हमें कहें – यहां पर चतुर लोमड़ी गुरु स्वरूप है । साधारण जीव विभिन्न प्रकार की झूठ झमेले में फंस जाता है, उलझ जाता है। फलस्वरूप अपने इष्ट को भुलकर तरह-तरह के हैरान-परेशान कष्ट झेलता है। इस अवस्था में मनुष्य यहां वहां शांति का आश्रय खोजे फिरता है । परंतु जितना उसके अभिज्ञता बड़ता है उतना ही वह देखता है जगत् बड़े ही विचित्र है। सत्य – त्रेता – द्वापर – कलयुग यह चारो युगों में न्याय-अन्याय का कोई मीमांसा नहीं हुआ । आज भी समाज में इसको लेकर वितर्क होता चला आ रहा है – क्या न्याय है,और क्या अन्याय है ! एक दल राम के पक्ष में _ तो दूसरा रावण के पक्ष में ! आज भी भारत, श्रीलंका में भिन्न-भिन्न स्थानों पर रावण का पूजा होता है ! कर्ण बङा या अर्जुन बड़ा – इसको लेकर भी समाज में तर्क का शेष नहीं ! महाराजा हरिश्चंद्र का क्यों इतना दुर्गति यह भी एक बङे वितर्क का बात है ! इस लिए तर्क-वितर्क से कोई भी समाधान नहीं होता या समाधान सूत्र भी नहीं मिलता । समाधान कर सकते हैं सत-गुरु । वें वितर्क में नहीं जाते — वें साधक का घटन – अघटन का जङ या मूल केंद्र में ले जाते हैं । जहां से समस्या आरम्भ हुआ था, इंद्रीआदि रूप बाघ का वहि:जागतिक क्रियाओं से अतिष्ट होना पड़ता है मानव को , गुरु आकर साधक का चेतना को मूल केंद्र में ले जाते हैं । बाघ पिंजरे में घुसने पर खुद खिल्ली जड़ देतें हैं — मानव वहि:जागतिक झमेले से मुक्त होता है । तब शुरू होता है अंतर जगत के रास्ते पर चलना । बाउल गाने में है – ” चलो गुरु जाइ दुर्जन पारे /आमार एक्ला जेते भोई कोरे ।” ( गुरु चलें दोनों उस पार मुझे अकेला जाने से डर लगता है )। यहां पर “डर” का मतलब महामाया का जगत में फंस जाने का डर । परंतु गुरु ही सही रास्ता दिखा देतें हैं– रास्ते का साथी नहीं होते । जाते जाते थम जाने पर, रास्ता भूल जाने पर फिर से आविर्भाव (प्रकट) होतें हैं । उस अर्थ से संग का साथी — हाथ पकड़ कर ले चलना । अंतर्निहित अर्थ समझे तो ! विषय को स्थुल रुप से समझने से नहीं होगा । सूक्ष्म या कारण जगत का चिरंतन साथी — स्थुल जगत में जितना जरूरत हो उतना ही । स्थुल में जो बहुत ही कम क्रियाशीलता, यहां वेग कम होता है – बाधा अनेक है। सूक्ष्म में और भी गतिशीलता है, एवं कारण जगत में समय का बंधन काम ही नहीं करता है, इसी लिए इस अवस्था में कार्य अति शीघ्रता से कर पाना संभव होता है।
( कहानी स्वामी परमानंद जी । संकलक श्रीधर बनर्जी,कथा प्रसंग! Translated by Sudhir Sharma a former student of Bangaram Paramananda Mission. )।