हम बात कर रहे थें महाराजा और उनके पार्षद मंडली जब प्रजा का हाल-चाल सुख-दुःख को जानने निकला । वृक्ष तले बैठ कर बातों ही बात किसी प्रकार कुछ लोगों के साथ आपसी सम्बन्ध हुआ।अब आगे—-
इधर हुआ का – महाराजा के साथ जो पार्षद आया था यानी मंत्री मंडल, वें सब भी किसी न किसी पेङो तले छोटी- छोटी समूहों में बैठ कर भिन्न-भिन्न प्रकार के चर्चाओं में लीन हो चुका था। राजा के प्रति उनका किसी प्रकार का ख्याल न रहा। ( पंच त्तव के जाल में ब्रह्मा फँसकर रोयें )। परन्तु राजा को हर तरफ नजर था – सब कुछ ज्ञात था। एक एक कर सभी को अपने पास बुलाकर, प्रयोजन अनुरूप कार्य भार सौंप दिया । किसी ने राजा के झोले में लाए हुए राजघरानों कि तस्वीरों को निकालकर सभी को दिखा रहा था।तो कोई , पिछे आने वाले लोगों को पहले कि अनसुनी कहानियां सुना रहा था। कुछ लोग चर्चाओं में इस प्रकार मसगुल थें कि राजा उन्हें पहली बार बुलाया तक भी नहीं।
राजा इस बार खास अंदरमहल कि बातें बताने लगा! राजा-रानी का गुप्त कक्ष कि बातें ! राजा के असली चेहरा दिखने मे कैसा है- शाही पोशाक में तो राजा को सब कोई देखता है _खुला राजश्रिंगार, खुला मुकुट– खुल्लम-खुल्ला राजा । प्रजा पालक , दण्डाधिकारी, राज्यसभा का राजा नहीं – – बच्चों को गोद में उठाकर प्यार करने वाले राजा का कहानी कितने लोग जानता है ? वहाँ मौजूद लोगों ने विभोर होकर राजा के मुँह से ही राजा कि कहानी सुन रहा था। राजा के अलावा और कौन इतने अच्छे से राजा के बारे में बता सकता है !
दिन लगभग ढल चुका था,अब खेल समाप्त करने का खेल होगा ! प्रजा गन का सुख-दुःख का शिकायत सुनने के उपरांत, भेषधारी पार्षदों को बुलाकर उनके समस्याओं को हल करने के लिए भिन्न-भिन्न प्रकार का केंद्र खोलने का आदेश जिस प्रकार दिया, उसी प्रकार राजा के प्रति उन सभी का भी आदर बढ़े इस लिए प्रजा गन के समक्ष राजा को भी प्रस्तुत किया।
अब राजा का एक काम और है। जिनको साथ लेकर आया था उन सबको सतर्क करा देना – ” क्यों जी ! इधर आओ कहाँ खोए हो! याद नहीं, क्या है तुम्हारे काम? छोङो झुठे साज – आरम्भ करो अपना असली काम।”
— कहानी खत्म कर गुरु महाराज कहें – ए जो यहाँ पार्षद और राजा का बात हुआ, जब भगवान नर शरीर (रूप) धारन कर लीला करने हेतु मृत्यु लोक में आते हैं – यह उस का ही प्रतिरूप है । भगवान अकेला नहीं आते हैं – – साथी लेकर आते हैं । कोई आगे आकर रेइकी कर जाता है, स्थान निर्धारित करता है । कोई थोड़ी देर से आता है —- तो कोई साथ में आता है । परन्तु साथ में आने से का होगा — ज्यादातर ही स्थान-काल के प्रभाव से माया-मोह ग्रस्त होकर कर्तव्य और कार्य से बिमुख हो जाता है । भगवान हीं उन सबको बुला लेते हैं — और कर्तव्य में सुनियोजित करतें हैं । भगवान जब मनुष्य शरीर धारन कर लीला करने आते हैं – तब वहाँ उपस्थित इनसान पहचान नहीं सकता कि ए स्वयम भगवान हैं । कोई कोई सोचता है यह एक साधक हैं । कोई सोचता है साधक नहीं उच्च कोटि का संत । कोई महात्मा कह कर सम्बोधन करता , महासाधक या महामानव । परन्तु यह तो स्वयम ईश्वर हैं ! यह कोई समझ नहीं सकता । संग-साथी भी पंचतत्व का जाल में फँसकर भुल जाता है – स्मृतिभ्रम के कारण, किस कार्य हेतु आया है, यह भी पता नहीं रहता है ! यह सब देख राजा (ईश्वर) हँसते हैं- और फिर उन सबका स्मृति को पुनः जागरण कर देतें हैं। कुछ को साथ लेकर जातें हैं या तो फिर उन्हें यथार्थ कार्य भार देकर यथा स्थान पे गमन करते हैं । (समाप्त )
[कहानी स्वामी परमानंद जी। संकलक श्रीधर बनर्जी, कथा प्रसंग । Translated by Sudhir Sharma, a former student of Paramananda Mission, Banagram.]