राजा के मन में जागे तिनो प्रश्नों का उत्तर बताने के लिए उसके महामंत्री ने जब साधु बाबा से राजसभा में चलकर उतर बताने को कहा ताकि उनका समस्या समाधान हो जाए —-अब आगे
परंतु सन्यासी ने कहें – ” मैं तुम्हारे राजा का प्रजा नहीं हूँ जो उसका हुकूमत मुझे मानना पङेगा । मैं तुम्हारे राज्य सिमाना का ठीक बाहर निवास करता हूँ । मैं तुम्हारे राजा का कोई फसल नहीं खाता – – वन का फल मूल खाता हूँ झरने का पानी पिया करता हूँ । इसलिए मेरा कोई दायित्व नहीं बनता , जो तुम्हारे राज्य सभा में जाकर तुम्हारे राजा का मनोरंजन करें। यदि सही में ही तुम्हारे राजा का मन में कोई प्रश्न जागा है – – तो उसे जाकर कह दो वह स्वयं यहां आकर उसका समाधान लेकर जाए! ”
मंत्री ने उन्हें डराने लगा, कहा – ” जानते हैं , मैं आपको क्या कर सकता हूँ ? साधु ने हंसकर बोलें – ” सर कलम कर सकते हो ; तो इसे ही काटकर कर तुम्हारे राजा के पास लेकर जाओ! परंतु कटे हुए सर बात नहीं कर सकता ! तो तुम्हारे राजा का जिज्ञासा का उत्तर कौन देगा ? ” मंत्री सोचने लगा – – सही बात , इसे तो मारा नहीं जा सकता, राजा को ही बुलाकर लाना होगा।
मंत्री साधु बाबा से आज्ञा लेकर राजसभा में लौट गया । राजा को सब कुछ बताया । राजा सब सुन कर गुस्से से आग बबूला होकर कहा – ” वह शैतान को बांधकर क्यों नहीं लाया ?
मंत्री ने कहा – ” महाराज ! जिस साधु ने अपने प्राण का परवाह नही करता ऐसा का मौत कि बातें सुनकर हंसता हो- उसे दवाब देकर कार्य हासिल नहीं किया जा सकता । आपको ही वहां चलना होगा। ”
राजा को अपने प्रश्न का उत्तर चाहिए ही। किसी भी कीमत पर उसके मन का बोझ हौला करना हीं होगा, नहीं तो और भी उनका तबियत बिगङे जा रहा है, राज्य का सारे कार्य बिगङ रहा है, इस प्रकार तो चल नहीं सकता । — इसलिए राजा वहां जाने के लिए राजी हो गया!
मंत्री ने यह सलाह दिया ! ” महाराज! वह स्थान बहुत ही दूर है! राज्य सीमाना के बाहर साधु का कुटिया है । इसलिए सुबह जल्दी दोनो को वेश धारण करके निकलना होगा , ताकि कोई परिंदे तक देख ना सके !”
जैसि भावना वैसे ही काम ! अगले दिन खूब सुबह किरण निकलने के पहले ही दोनों साधारण मनुष्य का वेश धारण कर साधु बाबा की आश्रम के उद्देश्य से निकल पड़ा । लंबी दुरी कि रास्ता तय करके वह दोनों जब साधु बाबा की कुटिया के समीप पहुंचा तब समय दोप्रहर बीत रहा था। गर्मी का मौसम था – – गर्म प्रवाह चल रही थी परंतु स्थान जंगली होने के कारण थोड़ी बहुत छाँव हो रही थी । राजा और मंत्री ने देखा बांस के फट्टियों से घेरा एक स्थान जहां साधु बाबा का कुटिया है । वेशधारी राजा और मंत्री वह बाङे का दरवाजा धकेलकर अंदर जाते हैं उन्होंने देखा एक दुबले- पतले , दाढ़ी जटाधारी यूक्त एक बूढ़ा कुटिया का आंगन में एक गड्ढा खोद रहा है । शायद सुबह से ही खोद रहा है , क्योंकि वह गड्ढा करीबन कमर भर हो चुकी थी । साधु बाबा एक कुदाल लेकर गड्ढा में उतर कर बड़े ही कष्ट करके मिट्टी को खोदकर इकट्ठे कर रहा है – और उसके बाद मिट्टी को एक टोकरी में भर कर फिर उसे गड्ढे के ऊपर बङे मुश्किल से रख रहा है । फिर रेंगते हुए गड्ढे से बाहर आकर मिट्टी भरे टोकरी को अपने कंधे पर उठा कर कुटिया परिसर का बाहर फेक रहा है। फिर वह धीरे-धीरे गड्ढे में उतर कर मिट्टी खोद रहा है, मिट्टी को इकट्ठा कर रहा है , और उसी तरह बार – बार कर रहा है !
एक तो उम्र से थका है , और उपर से कठोर परिश्रम और तपती धूप में – सूर्य का जलती तेज में पसीने से लथपथ बदन होते हुए भी वृद्ध सन्यासी का कर्म के प्रति निष्ठावान और समर्पण का जरासा भी अभाव नहीं था। भेष धारी राजा और मंत्री पास में ही एक बृक्ष के नीचे खड़े होकर विश्राम कर रहा था – वह दोनों भी रास्ते में चलकर थक चुका था। परंतु वृद्ध संन्यासी को उन दोनों के प्रति जरा भी ध्यान नहीं था ।
कुछ देरतक वह दृश्य देखने के उपरांत राजा अधैर्य होकर वृद्ध संन्यासी के तरफ आगे बढ़ा! जाकर कहा, ” महाशय जी! आप क्या पागल हो गए हैं क्या, बताइए तो जरा ! इस बूढ़े उम्र में इतना परिश्रम का काम आप कर सकते हैं ! वह भी इस तपती दोपहर में ? ”
वृद्ध ने अपने पसीना पोछते हुए उत्तर दिया, ” क्या और करूं बेटा ! हमारे यहां मैं अकेला ही रहता हूं , इस लिए मेरा काम मुझे ही करना पड़ता है । आज सुबह मै यह संकल्प किया हूं यही का ,- इतने (जो कुछ संख्या तय किया ) टोकरी मिट्टी को खोदुंगा ही । और वह लगभग हो हीं चुका है , और कुछ टोकरी मिट्टी खोदने से ही मेरा संकल्प सिद्ध हो जाएगा – उसके बाद ही विश्राम लूंगा । ” राजा ने कहा ठीक है , ठीक है । आप जाइए _ वहां छांव में बैठीए है , मैं वह बचे हुए कुछ टोकरी मिट्टी को खोद देता हूं।” – – यह कहकर राजा ने साधु बाबा का हाथ पकङ कर छांव में ले जाकर बैठा कर खुद से मिट्टी काटने लगा! मंत्री तो राजा को मिट्टी काटते देखकर आश्चर्य हो गया! वह क्या करें या ना करे उसे समझ में नहीं आ रहा था ! —– क्रमश ।
( कहानी स्वामी परमानंद जी । संकलक श्रीधर बनर्जी कथा प्रसंग! Translated by Sudhir Sharma, a former student of Bangaram Paramananda Mission.)