पहले भाग में हमने कहानी का उस स्थान पर थें जब सुदर्शन युवक ने रानी का प्रश्न का उत्तर देकर पुनः वह वृद्धा रमणी के पास लौट आया। तभी वृद्धा रमणी ने अपने जादुई शक्ति से खुद को एक सुंदर नारी का भेष धारण कर लिया ,और उससे वह युवक से जाना जाना चाहा कि_ क्या वह पहले से अभी अच्छी लग रही है ! ना कि कि फिर पहले का ही रूप अच्छा था। जब उसके द्वारा ढेरों नेक काम और भला हुआ करता था । अब आगे ……
जादुई रमणी कि बात सुनकर वहीं युवक क्षण मात्र देर किए बिना कहा_ “आपकी पहले या अभी का रूप में अच्छे बुरे ढूंढने प्रयास करना एक बड़े ही मूर्खता होगी! आपही ने हमें सिखाई थी _ नारीयों का संदर्भ में देखा जाए तो, “नारी का इच्छा शक्ति ही वह नारी जीवन को चालित किया करती है! (अर्थात रमणी जो हासिल करना चाहती है जब तक उसे हासिल ना कर लेती है तब तक वह बेचैन रहती है! उसे प्राप्त करके ही वह शांत होती है !! योगशास्त्र में इसे ‘स्त्री-हट’ कहा गया है।) और यही उत्तर देकर ही मैं रानी के हाथों मुक्ति लाभ किया हूं !! परंतु मैंने यह भी समझा, नारी का इच्छा शक्ति का गति बङे ही उलझे हुए होते हैं! यही देखिए न आपने भी अपनी पूर्व अवस्था में ही अर्थात जादूई महिला की अवस्था में रहना चाहे थें _ इसीलिए काफी दिनों तक उस दशा में बिताएं। अभी मुझे देखकर आपके मन में एक नए इच्छा का उदय हुई और उसे पूर्ण करने के लिए आपने नई रूप धारण किया ! ! और फिर से अगर आपके मन में कोई नई इच्छा जागृत होने से, आप मुझे भी फटकार दोगे!”
युवक की बात सुनकर जादुई रमणी लज्जित हो गई, और इसी बीच जादुई रमणी को और कुछ कहने का मोहलत दिए बिना युवक वहाँ से प्रस्थान किया ।
दरासल वह जादुई रमणी , इच्छा-ही नारी को नियंत्रण करता है _ यही रहस्य ही युवक को सिखाई थी ! यह एक ही उत्तर सुनकर रानी लज्जित हो गई थी क्योंकि सही में रानी वह युवक का रूप और यौवन सौंदर्यङ देखकर उसपर मोहित हो गई थी ! और फिर जादुई रमणी भी !! गुरु महाराज जी कुछ क्षण बात को रोक कर फिर से कहना शुरू कियें यह कहानी यूरोप का है फलस्वरूप वहां का प्रचलित दर्शन का एक चित्रण इसमें मिलता है । परंतु भारतीय दर्शन कहता है भावना, इच्छा, क्रिया! भावना और इच्छा, मन और बुद्धि का जगत् में कार्यरत है! पहले मन में भावना आते हैं, उसमें बुद्धि जुड़कर ईच्छा का रूप लेती है । और बलवती इच्छा ही इंद्रिय संयोग से कर्म में लिप्त होती है जिसे क्रिया कहा गया है!!
अब बात यह हुई _ मनुष्य का जीवन में इच्छा, शुभ संकल्प होने से क्रिया या कर्म शुभ होती है, लोक कल्याणकारी और सृजनशील होता है । और भावना यदि अशुभ हो तो तो फिर उसके द्वारा विनाशककारी, अकल्याणकर कार्य होता है ।
ठाकुर श्री रामकृष्ण देव कहें थें _ ब्रह्म मन या बुद्धि का गोचर (हासिल योग्य) नहीं है_ परंतु शुद्ध मन या शुद्ध बुद्धि का गोचर है !
साधारण मनुष्य का इच्छा तो केवल मात्र शुखलाभ और भोग का इच्छा होता।
भगवान बुद्ध कहें थें ‘ एषणा! (अभिलाषा) पुत्रौषणा, बित्तौषणा लोकैषणा इत्यादि एषणा युक्त होकर मनुष्य कर्म के चक्र में फंस जाता है – और निकल नहीं पाते ! तो क्या और कभी नहीं निकल सकता है ? अवश्य ही निकल सकता है! कर्म के द्वारा ही कर्म के बंधन से मुक्त होना होगा । एकमात्र भगवत प्रित से कर्म करने से कर्म (बुरे कर्म ) का नाश होता है , इसलिए सद्गुरु या कोई आध्यात्मिक पुरुष का चरणों तले बैठकर उनके पास से जीवन का पाठ ग्रहण करना पड़ता है । इसके बाद वहीं शिक्षा ही जीवन में योजना करने से साधारण मनुष्य का जीवन भी महामानव का जीवन में परिवर्तित हो जाता है !! किसी रोमन दार्शनिक ने शायद मनुष्य (नारी) का इच्छा शक्ति का ही ज्यादातर प्राथमिकता दिया है ! परंतु भारतीय दर्शनिक सूक्ष्म जगत (भौतिक संसार) को और भी गहरी रूप से विश्लेषण किया है। भारतीय दर्शन का मानना है कि मन, बुद्धि, चित्त, और अहंकार यह चार को लेकर मनुष्य का अंतःकरण चतुरष्टय है । इस में मन का कार्य हुआ संकल्प और विकल्प, बुद्धि का कार्य हुई कुछ को निश्चय करना,और अहंकार हुआ अभिमानात्मक कार्य!
अर्थात मन ,बुद्धि और अहंकार हुई चित्त का अलग-अलग संकाय (कार्य )! यानी की मन एक सरोवर है_ और वह सरोवर का हर एक लहरें जैसे एक एक कार्य हो ।
वायु का प्रवाह बंद हो जाने पर सरोवर में और कोई लहरें नहीं बनता _ उसी प्रकार मन का वृत्तियों को समाप्त होते ही अंतःकरण शांत, समाहित होता है । इस प्रकार स्थिति को ही भारतीय दर्शनशास्त्र में समाधि का स्थिति कहा गया है!!
अष्टांगिक योग मार्ग का अंतिम सोपान हुई समाधि! यम – नियम ‌‍- आसन – प्राणायाम – प्रत्याहार – धारणा – ध्यान- समाधि ! सद्गुरु का करीब आने पर तभी साधक का आध्यात्मिक तत्वज्ञान (सिद्धांत) का धारणा होती है। अब अपने आप में वह धारणा को संपूर्ण रूप से समृद्ध (पोषण) करने का कौशल ही – ‘ध्यान’ है!
ॐ शांति: शांति: शांति:।।
(कहानी स्वामी परमानंद जी । संकलक श्रीधर बनर्जी कथा प्रसंग। Translated by Sudhir Sharma, a former student of Bangaram Paramananda Mission.)