एक दिन किसी भक्त ने जब गुरु जी से यह पूछा था कि सद्गुरु केवल सन्यासी या फिर गृहस्थ भी होते हैं । इस विषय को समझाने हेतु गुरु महाराज जिस कहानी का अवतारना किए थें, उस कहानी को यहाँ कहा जा रहा था । जहाँ पर एक तरुण ब्रह्मचारी अपने गुरु की खोज करते करते उस निर्दिष्ट स्थान पहुंचता है । तभी उसने अपने होने वाले गुरु से यह सुनकर आश्चर्य हुआ! उनके जैसा आदमी उनका गुरु हो ही नहीं सकता। और उसने वहां से प्रस्थान होना चाहा, तभी गृहस्थ ने उन्हें आश्वस्त कर भोजन ग्रहण करने को कहें । ताकि फिर से वह अपने गुरु का संधान कर सके। अब आगे —–‘
जैसे ही उसने खाना आरंभ किया तभी उनका गुरु ने बोल उठे – “ठहरो” !! अचानक गृहस्थ का गुरूगंभीर आवाज सुनकर वह आदमी आश्चर्य से गृहस्थ स्वामी के तरफ देखखते ही उन्होंने इशारा कर ऊपर की ओर देखने को कहा। गृहस्थ स्वामी का बात अनुसार जब उसने ऊपर की ओर देखा तो उसके आँख फटी की फटी रह गया !!! यह क्या बात है !! एक बड़ा सा धारदार खड़ा एक पतली सी सुतली में इस प्रकार बंधा हुआ है जो कभी भी टूट कर उसके गर्दन के ऊपर गिर सकता है ! और वह धारदार खाङा एक बार सर पर गिरते हीं सर दो- टुकड़ों में बट जाएगा । उस आदमी ने यह देखते हीं कूदकर अति शीघ्रता से वहां से भागना चाहा। गृहस्वामी ने उसे फिर से जोर पूर्वक बैठाया और _ ” कहा देखो , तुम ब्राह्मण हो ! एक बार जब गंडुष कर के खाने बैठ चुकी हो तब उठ जाने पर दिनभर तुम्हारा और कुछ खाना पीना नहीं होगा। दिन भर भूखा हीं रहना पड़ेगा! इसके आगे भी कुछ दिनों से तुम्हें अच्छे से खाना नहीं मिला है आज भी अगर बिना खाए रहे तो तुम मर ही जाओगे । इससे अच्छा है कि जल्दी जल्दी से खा लो जरूरत पड़े तो उधर खाङे की तरफ देखते-देखते खाओ ! इसके अलावा तुम मेरा अतिथि हो यदि खाना छोड़ कर उठ जाते हो तो, गृहस्थ का अकल्याण होगा ! इसलिए बेटे ! जल्दी से खा लो, क्या पता — कब खाड़ा टूट कर गिर जाए।”
वह आदमी और करता भी क्या ! किसी प्रकार खाने की थाली में से भोजन उठाकर मुंह में डाल रहा था ! आँखे तो सदा ऊपर खाङे पर था ! उसका खाना आरंभ होते ही गृहस्थ सज्जन आदमी किया का _ खाड़े को होले होले से हिलाने लगा, सायद खड़ा और जल्दी टूट कर गिर पड़े ! यह देख कर उस आदमी ने खाने की गति और भी तेज कर दिया ! किसी प्रकार खाना समाप्त होते ही स्प्रिंग की तरह वहां से छिटक हट गया और (किसि तरह बचगया) गहरी सांस लेने लगा! इसके बाद उसने कहा ” आप तो बङे हीं गजब का इंसान है महाशय ! इस प्रकार खतरे के मुंह में रखकर _ किसी को खाना खिलाया जाता है क्या ? अगर रस्सी टूट कर खाङा गिरता तो क्या दुर्गति होता बताइए तो जरा !!”
गृह स्वामी सज्जन आदमी बड़े ही शांत स्वर में उत्तर दिया ” अरे बेटा कुछ हुआ तो नहीं ना !! तो फिर चिंता किस बात कि ! अब बताओ कैसा खाया ? कोप्ता कैसा था ? और साग ,सब्जी का स्वाद कैसा था? खिर, चटनी यह सब का स्वाद कैसा लगा ? ” वह आदमी थोड़ा गुस्से में आकर कहा ” रुकिये महाशय ! वह सब तिखा ,खट्टा, मीठा का स्वाद लेने का मौका ही कहां मिला ? मेरा सारे ध्यान ( attention) तो उस खाङे के प्रति था_ खाने की तरफ मेरा किसी भी प्रकार का ध्यान हि नहीं था, इसलिए कौन सा खाने का क्या स्वाद है यह जाने किस प्रकार ? किसी तरह खाना को खत्म किया हूँ बस इतना हीं ! “
गृहस्वमी सज्जन व्यक्ति ने वह आदमी से हाथ मुंह धोकर विश्राम कक्ष में आने को कहें! वह आदमी उस घर में आने पर सज्जन व्यक्ति ने उससे कहना आरंभ क्या _ ” तब क्या समझे बेटा ! केवल मात्र खाड़े के तरफ तुम्हारे सारे मने योग होने के कारण तुम इतने सारे अच्छे अच्छे स्वादिस्ट भोजन का स्वाद को अनुभव नहीं कर पाया ! तो फिर जिसके सार मन सदा सर्वदा ईश्वर के प्रति रहता है वह किस प्रकार यह संसार का भोग वस्तु का स्वाद अनुभव करेगा ? तुम जब खाने बैठे थे , तुम्हारे थाली के चारों तरफ इतने सारे व्यंजन परोसा था_ वह सब को तुमने छुआ , खाया परंतु किसी का स्वाद अलग से नहीं पाए हो ! उसी तरह जिसका मन हरदम वही परमब्रह्म में लीन रहता है _ वह यह सब भोग जगत में रहकर भी उदासीन या निराशक्त बनकर कर रहता है! और यह सब व्यक्ति हीं सद्गुरू हो सकते हैं ! “
वह व्यक्ति तब अपने भूल धरना के विषय में समझा और गृहस्वामी का पद पर जाकर गिर पड़ा । गुरु शिष्य का मिलन हुआ।
कहानी को यहां समाप्त कर – इस प्रसंग में गुरु महाराज जी ठाकुर श्री रामकृष्ण देव द्वारा कहा गया द्वापर युग का और एक कहानी का अवतारन कियें —–क्रमश ।
( कहानी स्वामी परमानंद जी।संकलक श्रीधर बनर्जी,कथा प्रसंग. Translated by Sudhir Sharma, a former student of Bangaram Paramananda Mission. )।