राजा के मन में जागे तिनों प्रश्नों का उत्तर जानने के लिए राजा अपने मंत्रि को साथ लेकर जब साधु का कुटिया में पहुंचे तो वहां एक बूढ़ा का परिश्रम करते हुए देख, उसकी मन में दया आई और उनके बाकी बचे हुए कामो को पूरा करने के लिए खुद से तत्पर हो गए और हाथ बटाया। अब आगे
राजा करीबन १०/ १२ टोकरियाँ मिट्टी काटते हीं उसके हाथों में छाले पड़ गया! फलस्वरूप वह और मिट्टी खोद नहीं पारहा था ! मंत्री यह सब देखकर बड़े ही उतावला हो गया और राजा को कहा – ” आप ऊपर आइए , बाकी बचे हुए काम को मैं कर देता हूं। ” मंत्री भी मिट्टी खोदने लगा और राजा आकर जैसे ही एक पेङ के नीचे बैठने गया – – तभी एक गुस्साए हुए आदमी ने धारदार हथियार लेकर उस पर हमला करने का प्रयास किया ! आंखों के पलक पढ़ने से पहले ही झाङियों के पिछे छुपे दो सैनिक दौड़कर आया और युवक का हाथ पकड़ लिया और उसके हाथ से हथियार छीन कर उसे जकङ लिया !
दरअसल राजा रुप बदलकर यूंही राज्य का दूसरे प्रांत अर्थात अपने सीमा का बाहर जा रहा था – – इसलिए महामंत्री ने पहले से ही दो कमांडो को उन्हें अनुसरण कर पीछे पीछे आने को कहा था । इसलिए जब उनके दुश्मन राजा को आक्रमण करने का प्रयास किया तभी दोनों कमांडो आकर वह हमलावर को हमला करने से बचा कर रक्षा किया था।
जो भी हो यह सब घटना जब वहाँ घट रही थी , तव वह साधु बाबा एकदम से निश्चिंत और शांत होकर सब कुछ देख रहे थें , गवाह के रुपमे में देख रहे थें । किसी प्रकार चंचला नहीं दिखाई ! इतनी बड़ी घटनाएं घटी मगर वह इंसान को बिंदु मात्र हिलडोल नहीं था, इसीलिए राजा ने थोड़ी नाराजगी जाहिर करते हुए अपना परिचय देकर वहां आने का कारण बताया । साधुबाबा राजा का बात का बिना कोई उत्तर दीजिए धीरे-धीरे अपने कुटिया के ओर कदम बढ़ातेही राजा और भी गुस्से से आगबबूला होगया ! उसने जोर-जोर से चिल्लाने लगा! महामंत्री दौड़ कराया और परिस्थिति को संभालते हुए हाथ जोड़कर साधु बाबा से उन्हें चुप रहने का कारण जानना चाहा । साधु बाबा कहा – ” तुम सब यही बुद्धि लेकर राजपाट चला रहे हो ! तुम दोनों ही बड़े हैं नीच बुद्धि के हो इसीलिए तो तुम्हारे मन में इस तरह का संका पैदा हुआ है। तुम्हारे राजा का प्रश्न का उत्तर तो दे दिया गया है – तुम समझ नहीं पाए ?”
राजा ने आश्चर्य होकर पूछा – ” इतनी देर तक तो आप कुछ कहा तक नहीं – – तो फिर किस प्रकार उत्तर दिया?” सन्यासी ने कहा – सारे उत्तर का बातों से ही दिया जाता है – घटना चक्र से ही वह जाना जा सकता है । तुम्हारे यहां आगमन के बाद से जो जो घटना घटी है वह सब को बारी-बारी से सजा कर देखो तो – तुम्हारे प्रश्नों का उत्तर मिलता है कि नहीं ?”
राजा और मंत्री वृद्ध संन्यासी की बात ठीक से समझा नहीं और उसके ओर केवल देखे जा रहा था । सन्यासी ( साधु बाबा ) तब कहना शुरू किया -” हे राजन ! देखो , पहले जब आप यहां आए – आकर क्या देखा ? देखा – एक वृद्ध थक चुका है इस अवस्था में भी बड़े कठिन से कोई काम कर रहा है ! उसे देख कर आपको करुणा (दया) आई और सोचा तुम्हें कुछ करना चाहिए , वृद्ध को सहायता करना चाहिए ! आपने जल्दी से मेरे हाथों से टोकरी और फावड़ा ले लिया और हमें विश्राम के लिए भेज कर खुद काम को करना आरंभ किया ! आपको श्रम युक्त कार्य करने की आदत नहीं है, इसके अलावा भी आप देश का राजा हो – – यह सोचकर मंत्री शर्मिंदा झेल कर आपको उस काम से छुड़ाकर खुद काम करने में लग गया! इसके बाद ही आया है दुश्मन, आपके अंगरक्षक अपने प्रमाण का प्रवाह ना करते हुए उसने उस युवक को क्षण में दबोच लिया और तुम्हें संकट से मुक्त करा दिया। ठीक तो_ घटना क्रम ऐसे ही था तो? ”
राजा कहां – “हां , यह सब घटना तो मेरी आंखों के सामने ही घटी है – परंतु इसके साथ मेरे प्रश्नों का उत्तर का क्या वास्ता ? ”
वृद्ध सन्यासी थोड़ा फटकार लगाते हुए कहां – ” मुर्ख राजा ! इसके बाद भी तुम्हें साफ-साफ करके समझाना होगा! अच्छा, तो ठीक है सुनो – तुम्हारे मन में तीन प्रश्न जगा था :- अच्छे कार्य क्या है, अच्छे कार्य कब करना है और क्यों करना है – – – यही ना ? मेरे इस उम्र में थकान देखते हुए तुम्हारे मन में दया या करूना का भाव पैदा हुआ था और साथ ही साथ तुम दूसरे को भार अपने कंधे पर उठाने के लिए तत्पर हो गया — यही तो अच्छा काम है। मनुष्य का जरूरत पङने पर मनुष्य का पास खड़ा होना ही तो असली में मनुष्य का मानवता का काम है !
और तुम्हारा दूसरा प्रश्न था वह अच्छे काम कब करोगे – यही तो ! जिस वक्त तुम्हारे मन में यह प्रेरणा आया — तभी करोगे ! उसके पहले भी नहीं _बाद में भी नहीं! अतः दूसरों ( जरूरतमंद ) का जरूरत पड़ने पर खुद को नियोजित करना ही तो अच्छा काम है और जब तुम्हें यह लगेगे कि किसी को तुम्हारा जरूरत है – – – उस वक्त ही उसके पास खड़े होना , करण वही श्रेष्ठ समय होता है । पोथी- पत्रा , दिन- सुदिन देखकर दूसरों को ( जरूरतमंद) का जरूरत पूरा नहीं किया जा सकता ! तुम्हारे अंगरक्षक गन तुम्हारे प्राण बचाने के लिए उस वक्त किसी भी प्रकार का देर करता ( पोथी-पत्रा, दिन- शुभ दिन देखता ) तो क्या विनाश होता बताओ ? दूसरों का जरूरत पड़ने पर तुम्हारा भाग लेना ही अच्छा कार्य और जब जरूरत पड़े तब ही करना – किसी प्रकार का देरी मत करना। बाकी का हिस्सा अगले बार —-
(कहानी स्वामी परमानंद जी संकलन श्रीधर बनर्जी ‘कथा प्रसंग ‘ Translated by Sudhir Sharma, a former student of Bangaram Paramananda Mission. )